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विवेकानंद और अंग्रेज अफ़सर

Updated: Aug 3, 2020



एक बार की बात है कि विवेकानंद शिकागो से आने के पश्चात, राम कृष्ण मिशन के कार्य से बनारस पहुचे। नवंबर के माह था और हल्की-हल्की सर्दियां आने लगी थी। प्रातः में कोहरा हो जाता था। लोग ऊनी कपड़े ओढ़े दिखने लगे थे। दोपहर की धूप भी मध्यिम और मीठी लगने थी।


स्वामी जी गंगा के तट से थोड़ी ही दूर पे बने एक आश्रम में ठहरे थे। आश्रम पुराना था पर काफी बड़ा था। देश-विदेश से आये कई शैलानी वँहा हमेशा रुके रहते थे।




बिल्कुल प्रातः में जबकि सूर्य की पहली किरण भी नही फूटी थी, स्वामी जी ने बदन पे एक हल्का सा कपड़ा डाला और धोती बाँधी और बाहर सैर पे निकल पड़े। स्वामी जी अभी पश्चिमी दुनिया की कठोर शर्दी झेल के आये थे तो उनके लिए ऐसी हल्की शर्दी उनके बदन के रोयें भी खड़े न कर पा रही थी। थोड़ी ही देर में वो गंगा नदी के तट पे पहुच गए। बहती हुई अवरल और विशाल गँगा। जल का अपना कोई आकार नही होता, वो जिसमे जाता है उसका ही आकार ले लेता है। जल जीवंत होता है, और बहता हुआ जल इसी लिए अपने ओर आकर्षित करता है। ठहराव उबाऊ होता है, बदबू देता है। बहाव रोमांचक है, प्रसन्नता देता है।


स्वामी जी ने जब विशाल, गतिशील और आकर्षित गंगा देखी तो उनसे न रहा गया, और वो उसमे नहाने के लिए अपने वस्त्र उतारने लगे। भारतवर्ष का मानसून उस वर्ष लंबा चला था, गँगा नदी उफ़ान पे रह चुकी थी, पिछले कुछ महीने में काफी इंसानो की गँगा में डूबने से जान जा चुकी थी। कल्ट्रेट ऑफिस में काम करने वाला एक अंग्रेज अफसर भी वंही खड़ा था और स्वामी जी को अपने कपड़े उतारता देख रहा था। उसको मालूम था कि कई लोग इसी उफ़नती हुई गंगा में अभी हाल के ही दिन में जान गंवा चुके हैं। अंग्रेज अफसर को स्वामी जी का जोश परेशान करने लगा, वो समझ गया कि स्वामी जी यँहा नए है, और उनको गँगा में कूद जाने की बड़ी जल्दी है। अकसर लोग जोश में ही होश खोके नदियों में डूब जाते हैं, वो स्वामी जी को रोकने के लिए उनके तरफ बढ़ने लगा, लेकिन तब तक स्वामी जी ने अपने कुर्ते को उतार दिया था, धोती भी हटा चुके थे और लंगोट में वो रफ्तार से भागते हुए कुछ ऊंचाई से गँगा में छलांग लगा दिए।


ये सब इतनी जल्दी हुआ कि अंग्रेज अफ़सर को कुछ समझ मे ही नही आया, उसका मुँह खुला रह गया, पैर जम गया और उसने अपने हांथों को बढ़ा के स्वामी जी को रोकना चाहा पर मुँह से आवाज न निकल सकी। स्वामी जी कूद गए गँगा में, मगर कूदने के पहले उनकी आँखें अंग्रेज अफ़सर की आँखों से जरूर मिली, वो उसकी परेशानी की वजह समझ गए।


अंग्रेज अफसर दौड़ के वँहा पहुचा जंहा से स्वामी जी कूदे थे, स्वामी जी ऊपर से कूदे थे तो पानी के अंदर चले गए, अंग्रेज उनका पानी कर ऊपर निकलने की प्रतीक्षा करने लगा। 1 मिनट बीता, 2 मिनट बीता और इसी तरह 5 मिनट बीत गया। स्वामी जी ऊपर न निकले।


वो समझ गया कि कुछ अनहोनी हो गई, वो स्वयं कूदना चाहा पर प्रातः काल के विशाल गँगा को देख के हिम्मत न कर पाया, उसने देखा कुछ दूरी पे नीचे तट पे दो मछुवारे अपनी नाव पे कुछ काम कर रहे थे, उसने उनको आवाज दी। मछुवारों अंग्रेज को देखा, वो जानते थे कि अंग्रेज एक स्थानीय अफसर है तो वो दौड़ के उसके पास गए। वो ऊपर से ही उनको इंग्लिश में बताया कि कोई डूब रहा है। मछुवारे तुरंत जंहा अंग्रेज पानी मे इशारा कर रहा था वँहा कूद गए, गोते लगाने लगे। पानी के गहराई, ऊपर और चारो तरफ तैर-तैर के देखने लगे कि कोई डूब तो नही रहा है।


समय बीतता गया, आधे घंटे से ज्यादा बीत गए, भीड़ लग गई। स्वामी जी ऐसा पानी मे घुसे की ऊपर नही निकले। अंग्रेज अफ़सर और सभी ने आश छोड़ दी अब उनके मिलने की। सभी गँगा जी के तरफ नजर गड़ाए थे। इतने में तभी अंग्रेज अफ़सर के पीछे से कंधे पे एक व्यक्ति ने हाँथ रख के इंग्लिश में बोला, मछुवारों को अब जाने दो उनका कामाने-धमाने समय शुरू हो गया है। अंग्रेज अचानक से पीछे मुड़ा, और व्यक्ति को देखते ही उसके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई।


स्वयं स्वामी जी, जो कपड़े उन्होंने उतारे थे उसको पहन के वो उसके पीछे खड़े थे। उनको देख के लग ही नही रहा था कि वो अभी बस थोड़ी देर पहले गँगा मे रहे होंगे। बदन पूरा सूखा, बाल सुखे और चहरे पे ईश्वरीय तेज। स्वामी ने ये कहा और वो पीछे मुड़ के तेजी से चले गए।


अंग्रेज ने भी मछुवारों को गँगा से बुला के थोड़े बहुत पैसे देके उनके काम पे भेज दिया। धीमे-धीमे भीड़ भी छट गई। पर वो खड़ा रहा, घंटा दो घंटा उसको नही मालूम। ऑफिस भी नही गया। घर लौट के पूरे दिन स्वामी जी के बारे में सोचता रहा।


अगले दिन तक बात फैल गई कि बनारस में स्वामी विवेकानंद आये हैं, अंग्रेज अफसर को भी मालूम चला। वो समझ गया कि कल प्रातःकाल वाला संत कोई और नही स्वामी विवेकानंद जी ही थे। वो तुरंत उनके आश्रम का पता करके वँहा पहुच गया। पर तक स्वामी जी जा चुके थे। हाँ उनके कई शिष्य जरूर थे वँहा।


अंग्रेज अफसर ने काफ़ी सोचने के बाद स्वामी जी के शिष्यों पिछले दिन के प्रातःकाल की बात बता ही दी। जब उनके शिष्यों ने बात सुनी तो हँसने लगे। एक शिष्य ने उसको समझया ''देखो मन जो है न वो बहुत चंचल है एक साथ कई जगह रह सकता है। अब जब स्वामी जी मन हुआ कि बो गँगा के प्रातःकाल के हल्के गर्म पानी मे तैर के आनंदित हो सके तो उनको तुम्हारा परेशान चेहरा दिखाई दिया तो उनका मन तुमपे लग गया। अब उनको तुम्हे भी समझना था, मन तो उनका दो भागों में बट गया पर शरीर उनका पानी मे था। तो दोनों मन को एकाग्रता देने के लिए उन्होंने अपना शरीर भी बाट लिया। एक शरीर को तुम्हें समझाने भेज दिया और एक शरीर को अपने को आनंद देने के लिए लगाए रख्खे। ये ध्यान की पराकाष्ठा है। स्वामी जी ने इसे अभी प्राप्त किया है।''


अंग्रेज पहले कभी ऐसी बाते सुना ही न था वो निशब्द हो गया। भारत मे वो फिर कभी वो स्वामी जी से न मिल पाया। 1902 स्वामी जी पलायन कर गए और 1906 में अंग्रेज अफसर वापस ब्रिटेन वापस लौट गया।


1915 में जब प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था, अंग्रेज थेम्स नदी के किनारे बैठ के नदी की गहराई में देख रहा था तब उसे दुबारा स्वामी जी दिखे, उसको मालूम था स्वामी जी का शरीर अब इस दुनिया मे नही है। वो परेशान नही हुआ, वो खड़ा हुआ और अपने चेहरे पे मुस्कराहट ला के हाँथ जोड़ के स्वामी जी को प्रणाम किया।


अंग्रेज अफसर का नाम अल्फ्रेड स्टाट था, उसकी मृत्यु 1936 में हुई। उसने अपने डायरी में लिखा था कि वो कुल आठ बार स्वामी जी से मिला था।

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