कर्म, भाग्य और विवेकानंद
Updated: Aug 6, 2020

भारत एक विशाल देश है यँहा भाँति-भाँति के संप्रदाय और विचार एक साथ फलते फूलते हैं। गुरू और शिष्य के विचार और मान्यतायें भी अलग-अलग हो सकती है। बात एक ऐसे ही गुरु और उनके दो चेलों की है। स्वामी विवेकानंद के एक मित्र जिनका आश्रम मद्रास में था उनके कई चेलो में दो विशेष चेले थे। गुरु कर्मवाद और चेले भाग्यवाद पे विश्वास रखते थे। गुरु का मानना था कर्म ही फल देता है, और चेलों का मानना था कि भाग्य ने आपका फल पूर्व निहित कर दिया है उसको कोई नही बदल सकता इसलिए कर्म करे या न करें फल में बदलाव नही होता।
गुरु के मठ में शिष्य तीन साल से भी अधिक रह चुके थे, कई तरह की शिक्षा और कई ग्रंथों का अध्यन किया परंतु कर्म और भाग्य पे उनके बीच वैचारिक मतभेद बना रहा। गुरु को अब उनको और शिक्षा देना कठिन हो गया, उनके आपस के वैचारिक मतभेद के कारण शिष्यों ने गुरु के शिक्षा से मूलभूत दूरी बना ली थी। परंतु इस बात को बिना उन दोनों शिष्यों को बिना समझाये गुरु ने उन शिष्यों को शिक्षा देनी बन्द कर दी।
शिष्य भी ये देख परेशान हो गए, वो गुरु से मिले और इसका कारण पूछा। गुर ने कहा कि
"मेरे मित्र स्वामी विवेकानंद के बारे में तो तुम दोनों जानते ही हो, विवेकानंद विदेश की अपनी द्वितीय यात्रा से लौट के बेल्लूर मठ आ गए हैं। मैने उनको पत्र लिख है, मैने उनसे निवेदन किया है कि मात्र तीन दिन तुम दोनों को वो अपने मठ में रखके शिक्षा प्रदान करें। उन्होंने ने भी मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया है। अब तुम लोग जल्द से जल्द ट्रेन पकड़ के कलकत्ता चले जाओ और स्वामी जी के सानिध्य में अपने तीन दिन बिताओ।"
स्वामी विवेकानंद तब तक विश्व विख्यात नाम हो गया था, शिष्य भी प्रसन्न हो गए, उनको ये भी आभास हो गया कि उनके गुरु उनको स्वामी जी के पास क्यों भेंज रहे थे। स्वामी विवेकानंद कर्मयोग के विख्यात शिक्षक थे और शिष्यों को उनके गुरु कर्मवाद पे ही विश्वास दिलवाना चाहते थे। परंतु स्वामी विवेकानंद जैसी चुम्बकीय व्यक्तित्व से मिलने के लिए शिष्य रोमांचित हो उठे और अगले ही दिन ट्रेन पकड़ के चेन्नई से कलकत्ता के लिए रवाना हो गए।
बेलूर मठ वो अगले दिन रात्री में पहुचे तो उनको बताया गया कि स्वामी जी कल प्रातःकाल में मठ के बाहर मैदान में मिलेंगे।
अगली सुबह सुनहरी थी, सूर्य के किरणे जँहा पड़ रही थीं वँहा स्वर्ण जैसी चमक का एहसास हो रहा था। मठ के सामने ही फुटबॉल मैदान था, और वँहा 20-25 आदमी खड़े थे, खेल शुरू ही होने वाला था। दोनो शिष्य भी वँहा पहुँचे और थोड़ी दूर से खिलाड़ीयों के देखने लगे। आधे खिलाड़ी मठ के नही थे वो सामान्य खेल कूद के कपड़े या बनियान इत्यादि में थे। भगवा धोती के घुटनों के ऊपर बांधे मठ के तरफ से खिलाड़ी थे। मठ के खिलाड़ियों में ही एक खिलाड़ी जिसकी लंबाई 5 फुट 10 इंच रही होगी बीच मे खड़ा था, स्यामल रंग, हष्ट पुष्ट और गठा बदन, चौड़ा माथा और लहराते बाल दूर से बता रहे थे कि वो कोई नही बल्कि, स्वामी विवेकानंद थे।
खेल शुरू हुआ, प्रारम्भ से ही बाहर की टीम हावी रही, उनके पैरों में तेजी थी, सभी खिलाड़ियों में काफी अच्छा सामंजस्य था, फुटबॉल का पास और उसपे उनका शॉट बेहतरीन था। वंही मठ के टीम का हाल ठीक उल्टा था, जोश तो खूब था पर गेंद पे नियंत्रण न था, शॉट तो तेज मार रहे थे पर उसकी दिशा ठीक न थी। और सामंजस्य का हाल तो ये था कि पूरी टीम एक साथ फुटबॉल के पीछे भाग रही थी और कभी-कभी तो आपस मे ही फुटबॉल के लिए छीना झपटी हो जाती।
खैर, खेल के अंत मे मठ की टीम बहुत बुरी तरह हारी। स्वामी जी अपने शिष्यों के साथ मठ के अंदर जाने लगे, और दूसरी टीम उसी मैदान में प्रैक्टिस करती रही। दोनो मद्रासी शिष्य दौड़ के स्वामी जी के चरण को छुवा, स्वामी जी ने उनको आशीर्वाद दिया और उनका और उनके गुरु का कुलक्षेम पूछा। मठ के अंदर आने के पश्चात उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि ''आज हमारा भाग्य बहुत खराब था वार्ना हम जीतने ही वाले थे''। उनके सभी शिष्य उनकी तरफ देखते रह गए, पर बिना कुछ बोले अपने-अपने कक्ष में चले गए। दोनो मद्रासी शिष्य भी बिना कुछ कहे उनके अपने कक्ष में चलते बने।
दोनो शिष्यों को ये तो लग गया कि स्वामी जी भी भाग्यवादी हैं, वार्ना भाग्य को न कोशते। मन ही मन वो प्रसन्न हुए की अपने गुरु को ये बात बताएंगे।
स्वामी जी अपने कक्ष में घुसे तो पूरे दिन बाहर न निकले, पूरे दिन वो ध्यान करते रह गए। मद्रासी शिष्य भी संध्या तक बोर होके मठ के बाहर घूमने निकल गए। बाहर मैदान में देखा तो वो बाहर के खिलाड़ी फुटबॉल का अभ्यास कर रहे थे। उनको देख के एक शिष्य बोला
"स्वामी जी दिन भर ध्यान करेंगे, और अगले सुबह अचानक आ के इन लोगो को हराना चाहेंगे तो ऐसा कैसा होगा? इनको हराने के लिए मठ के खिलाड़ियों को दिन-रात अभ्यास करना पड़ेगा। सिर्फ भाग्य को दोष देके इनको नही हरा सकते, इनको हराने के लिए इच्छा शक्ति की जरूरत है"
दूसरे शिष्य, ने आश्चर्य से पहले शिष्य को देखा, उसको लगा उसका मित्र भाग्यवाद से कर्मवाद पे आ रहा है। उसने बात सम्हालनी चाही, उसने कहा
"मठ के खिलाड़ियों का भाग्य है कि उनकी इच्छाशक्ति इन खिलाड़ियों को हराने के लिए दुर्बल हो"
यह सुनके पहला शिष्य शांत हो गया और दोनों शिष्य कुछ देर घूम के वापस मठ में लौट आये। रात होने ही वाली थी तो संध्या का भोजन करके सो गए।
अगली सुबह फिर वही हुआ, मठ के खिलाड़ी बहुत बुरी तरह हारे, स्वामी जी ने फिर भाग्य को दोष दिया और फिर सब मठ में चले गए। पर दोपहर में स्वामी जी अपने कक्ष से निकल के सभी अपने शिष्यों को लेके बाहर मैदान में गए और अभ्यास करने लगे। सभी ने खूब मेहनत की, खूब पशीना बहाया, थके पर रुके नही। रात होने तक अभ्यास चला, दोनो मद्रासी शिष्यों ने भी खूब अभ्यास किया। सभी खूब प्रसन्न हुए, हँसे और काफी मजाक किया। और मठ आके उनमे से कई बिना खाये ही थकवाट में सो गए।
अगले दिन मठ की टीम एक नई टीम थी, सभी मे जोश के साथ होश भी था, उनके पैर पे फुटबॉल भी आ रहा था और साथ ही साथ वो जँहा फुटबॉल को मारना चाहते थे वँहा जा भी रहा था। खेल कांटे के टक्कर का हुआ, और अंत मे मठ की टीम किसी तरह जीत गई।
सभी प्रशन्नता में नाच उठे, मद्रासी शिष्य भी अत्यधिक प्रसन्न हो गए। जब सभी जीत के मठ में पहुचे तो स्वामी जी ने कहा कि आज हमारे कर्म ने हमको विजय दिला दी। एक मद्रासी शिष्य से अब न रहा गया उसने स्वामी जी को टोक दिया। उसने कहा
"स्वामी जी कल तक जब हम लोग बुरी तरह हार रहे थे तब तक आपने भाग्य को दोष दिया, जबकि हमारी जीतने की संभवना दूर-दूर तक नही थी, आज जबकि हम मात्र एक गोल से किसी तरह जीते तो आप कर्म की सराहना कर रहें हैं, जबकि आज हमने किसी तरह अपने भाग्य से ये खेल जीता है"
स्वामी जी उसकी बात सुनकर मुस्कुरा दिए, स्वामी जी ने कहा
"तुम्हे आज के खेल में हमारा प्रदर्शन कर्म लगा, जबकि वो तो हमारा फल था, उस कर्म का फल जो हमने बीते हुए कल मैदान में पूरे दिन अभ्यास करके पाया था। और उसी कर्म के फल का एक भाग हमारी जीत भी है। जबकि उसके पहले हम केवल भाग्य के भरोसे खेल खेलने जा रहे थे जिसके कारण हमारा फल नगण्य या हमारी हार थी। उसी को परिवर्तित करने की इच्छा ने हमसे कर्म करवाया और जिससे हमारी हार, जीत में परिवर्तित हो गई।
हर परिवर्तन के लिए इच्छा और उसपे किया गया कर्म जरूरी है, भाग्य परिवर्तन नही लाता, कर्म परिवर्तन लाता है। ये ब्रह्मांड हमेशा परिवर्तनीय है, और उसका कारण लगातार हो रहा कर्म ही है"
ये बातें सुनकर दोनो मद्रासी शिष्यों के मस्तिष्क में आंधी सी आ गई, उनके पहले के समस्त विचार तहस-नहस हो गए। वो कुछ बोलना ही चाह रहे थे कि स्वामी जी ने उनको टोकते हुए कहा
"अब तुम दोनो नहा-धो के, खा-पी के जल्दी से कलकत्ता स्टेशन के लिए निकल जाओ आज दोपहर वँहा से मद्रास के लिए ट्रेन छूटेगी"
इसको सुनते ही एक शिष्य आश्चर्य से बोला
" परंतु स्वामी जी हमने तो आप से अभी एक दिन भी शिक्षा नही पाई"
इसपे स्वामी जी ने कहा
"अरे पागल तुम्हारी ये ज्ञान के अनुभूति में खुली आंखे बता रहीं है कि जितनी शिक्षा तुम दोनों ने मठ के बाहर उस खेल के मैदान में पाई है, उतनी शिक्षा तुम जीवन पर्यंत इस मठ के अंदर मुझसे नही पा सकते थे।"
ये कह के मुस्कारते हुए स्वामी जी अपने कक्ष में चले गए।