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मन का 'रंगीन चश्मा' और नरेंद्र

Updated: Aug 6, 2020





बात तब की है जब नरेंद्र स्वामी विवेकानंद नही हुए थे। बचपन से ही नरेंद्र कुशाग्र थे पढ़ने के साथ-साथ वो खेल कूद में भी आगे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त एक जाने माने वकील थे। एक दिन विवेकानंद जब अपने आँगन में खेल रहे थे तो बाहर खिलौना बेचने वाला आया नरेंद्र बाहर दौड़ के गए, उन्होंने देखा कि खिलौने वाले के डलिये में छोटे-छोटे रंगीन चश्मे भी थे। नरेंद्र ने माँ से जिद्द कर के एक लाल और एक नीले रंग का चश्मा खरीदवा लिया। पूरे दिन नरेंद्र की दुनिया रंगीन रही, वो चहकते रहे, खेलते रहे, भागते रहे।





शाम को जब पिता जी आये तो उनको भी नरेंद्र अत्यधिक प्रसन्न दिखे, उन्होंने उनकी माता से उनके प्रसन्नता का कारण पूछा तो पता चला आज नरेंद्र को रंगीन चश्मा मिला है तो उनकी दुनिया भी रंगीन हो गई है। पिता जी ने कुछ नही बोला। संध्या के भोजन के समय नरेंद्र और उनके पिता दोनो खाने पे बैठे। पिता जी ने नरेंद्र से पूछा


"नरेंद्र, आज मैने सुना कि तुम रंगीन चश्मा पा के बहुत प्रसन्न हुए"


"हाँ पिता जी, आज तो मेरी उबाऊ, नीरस और गमगीन दुनिया बहुत ही रोमांचक, बेहतरीन और रंगीन हो गई" नरेंद्र ने खिलकर कहा।


पिता जी ने नरेंद की ओर देख के थोड़ा आश्चर्य में फिर पूछा "क्यों, तुम्हारी दुनिया उबाऊ और गमगीन क्यों थी?"


"अरे पिता जी बार-बार वही एक तरह की दुनिया देखते-देखते उबासी आती है, सब दुखी-दुखी जैसा लगता है, इस चश्मे ने बदलाव दिया, अलग नजरिया दिया, एक अलग ही मजा दिया" नरेंद्र ने उत्तर दिया।


पिता जी कुछ नही बोले, वो खाना खा के उठ गए। रात्रि में सोने से पहले उन्होंने फिर से नरेंद्र को बुलाया।


उन्होंने नरेंद्र को गोदी में बैठाया और कहा


"नरेंद्र, ये दुनिया, ये जीवन रोमांचक है, रंगीन है इसको जानने के लिए हमे इसको किसी चश्मे से देखने की जरूरत नही,चश्मे की जरूरत कमजोरों को होती है जो वास्तविकता को स्वीकार्य करने का सामर्थ्य नही रखते। सत्य सतह पे तो कठोर होता है परंतु उसके गर्भ से जो अनुभव मिलते हैं वो सिर्फ विचारों को नही पूर्ण जीवन को सुगंधित बना देते हैं, और जीवन के बाद भी आत्मा को सुगन्धित करते हैं।


इस संसार को माया ने बनाया है, उसने सत्य को कई आकर्षक मुखौटे और रंगीन चश्मों से छुपा दिया है। जो उन मुखोटों और चश्में के आकर्षण में गुम नही होता, वो समझदार है। जो उन मुखोटों और चश्में के पीछे सत्य को देखने के लिए हर निराशा और हर गम से लड़ने को तैयार रहता है, वो वीर है। जो कई बार निराशा और असफलता के बाद भी सत्य के गर्भ को जानना चाहता है, वो साधक है। और जो उस सत्य के गर्भ की अनुभूति कर लेता है, वो परम ज्ञानी होता है।


इस दुनिया मे पहले से ही कई माया है, और भौतिक वस्तुओं के प्रयोग में फ़स के हम सत्य से और दूर होते जाते हैं"


नरेंद्र छोटे जरूर थे परंतु उनकी समझ किसी ऋषि की तरह ही थी, वो समझ गए कि पिता जी क्या कहना चाहते हैं।


नरेंद्र अपने कमरे में चले गए, और उन दोनों रंगीन चश्मे को अपने बक्से में कपड़े के नीचे गहराई में रख दिया, उसके बाद नरेंद्र ने स्वयं को भी माया के गहराई से निकालना शुरू कर दिया।


पिता जी की उस रात्रि की शिक्षा स्वामी जी को अगले ही दिन बड़ी काम आई। पर उसके बारे में हम आगे की पोस्ट में बात करेंगे।

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